18 February Panchang 2025 का दैनिक पंचांग / Aaj Ka Panchang: 18 फरवरी 2025 को फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि है। इस तिथि पर चित्रा नक्षत्र और गांदा योग का संयोग रहेगा। दिन के शुभ मुहूर्त की बात करें तो मंगलवार को अभिजीत मुहूर्त दोपहर 12: 09 से 12:54 मिनट तक रहेगा। राहुकाल 08:21 − 09:44 मिनट तक है। चंद्रमा तुला राशि में संचरण करेंगे।
श्री सर्वेश्वर पञ्चाङ्गम्
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🚩🔱 धर्मो रक्षति रक्षितः🔱 🚩
🌅पंचांग- 18.02.2025🌅
युगाब्द - 5125
संवत्सर - कालयुक्त
विक्रम संवत् -2081
शाक:- 1946
ऋतु- बसंत
सूर्य __ उत्तरायण
मास - फाल्गुन
पक्ष _ कृष्णपक्ष
वार - मंगलवार
तिथि- षष्ठी अहोरात्र
नक्षत्र चित्रा 07:34:29
योग गण्ड 09:50:39
करण गर 18:13:00
चन्द्र राशि - तुला
सूर्य राशि - कुम्भ
🚩🌺 आज विशेष 🌺🚩
✍️ बसंतोत्सव प्रारंभ
🍁 अग्रिम (आगामी पर्वोत्सव 🍁
👉 विजया एकादशी व्रत
24 फर. 2025 (सोमवार)
👉 प्रदोष व्रत/ व्यतिपात पुण्यं
25 फर. 2025 (मंगलवार)
👉 महाशिवरात्रि व्रत
26 फर. 2025 (बुधवार)
👉 देवपितृ कार्य अमावस
27 फर. 2025 (गुरुवार)
🕉️🚩 यतो धर्मस्ततो जयः🚩🕉️
जनकजी और अष्टावक्र जी का बहुत ही सुंदर संवाद...
(ज्ञान एवं वैराग्य का अधिकारी कौन है? इस विषय पर चर्चा)
एक समय राजा जनक घूमने निकले, रास्ते मे अष्टावक्र जी को आते हुए देखा। राजा जनक ने वाहन से उतरकर ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया, किंतु ऋषि के शरीर को देखकर राजा के चित्त में यह घृणा हुई कि परमेश्वर ने इनका कैसा कुरूप शरीर रचा है... क्यो की ऋषि के शरीर मे आठ कुब्ज थे, इसी से उनका शरीर देखने मे कुरूप प्रतीत होता था, और जब वे चलते थे, तब वह आठ अंगों से टेढ़ा यानी वक्र हो जाता था। इसी कारण उनके पिता ने उनका नाम अष्टावक्र रखा।
किंतु ऋषि अष्टावक्र आत्मज्ञान में बड़े निपुण थे, और योग विद्या में भी बड़े पारंगत थे, अष्टावक्र जी ने अपने योगबल से राजा जनक के मन की बात जान ली...
अष्टावक्र जी ने राजा जनक से कहा, राजन!! मैं जानता हूँ, तुम्हारे मन मे क्या चल रहा है। तुम किससे घृणा कर रहे हो? मेरे शरीर से? या उस परमात्मा से? जिसने मुझे ऐसा ही बनाया है...
राजन जैसे मंदिर के टेढ़ा होने से आकाश टेढ़ा नही होता, और मंदिर के गोल और लंबा होने से आकाश गोल एवं लंबा नही होता, क्योंकि आकाश का मंदिर के साथ कोई सम्बन्ध नही है, आकाश निरवयव है, और मंदिर सावयव है।
(निरवयव = जिसको बांटा न जा सकें)
(सावयव = अङ्ग सहित )
इसी तरह आत्मा का भी शरीर के साथ कोई सम्वन्ध नही है, क्यो की आत्मा निरवयव है, और मंदिर सावयव है। आत्मा नित्य है, और शरीर अनित्य है। शरीर के वक्र आदि धर्म आत्मा में कभी नही आ सकते। अतः राजन, ज्ञानवान की आत्मदृष्टि रहती है, और अज्ञानी की चर्म दृष्टि रहती है। इसलिए तू अगर चर्म दृष्टि का त्याग करके आत्मदृष्टि को ग्रहण करके देखेगा, तब तेरे चित्त से घृणा दूर हो जाएगी।
इन अमृत वचनों को सुनकर राजा जनक के मन मे आत्मज्ञान प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा प्रगट हुई, इसलिए राजा ने ऋषि से प्रार्थना की... कि आप हमारे महल चलकर अपने चरणकमलों की धूल से उसे पवित्र कीजिये...
ऋषि ने राजा की बात को स्वीकार किया, और उनके साथ महल चले आये। राजा जनक ने अष्टावक्र जी को बड़े सत्कार के साथ ऊंचे सिहांसन पर बिठाया, और अपने चित्त के संदेहों के बारे में ऋषि से प्रश्न करने लगे...
सर्वप्रथम राजा जनक ने अष्टावक्र जी से तीन प्रश्न किये...
१. हे प्रभु! पुरुष को आत्मज्ञान कैसे प्राप्त होता है?
२. संसार बंधन से मुक्ति के क्या उपाय है? अर्थात जन्म मरण रूपी संसार से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है।
३. एवं वैराग्य की प्राप्ति कैसे होती है?
अष्टावक्रजी ने राजा से कहा... सुनो राजन!! इस संसार मे 4 प्रकार के पुरुष है... (१) ज्ञानी (२) मुमुक्षु (३) अज्ञानी (४) मूढ़।
(मुमुक्षु = मौक्ष की चाह रखने वाला)
राजन, तुम ज्ञानी तो नही हो, क्यो की ज्ञानी व्यक्ति शंका से रहित होकर आनंदित रहता है। किंतु तुम शंका से रहित नही हो।
राजन! तुम अज्ञानी भी नही हो, क्योंकि अज्ञानी के मन मे स्वर्ग आदि फलों की कामना रहती है। तुम्हारे मन मे फलों की कामना नही है, अतः तुम अज्ञानी भी नही हो।
राजन तुम मूढ़ भी नही हो, क्योंकि अगर मूढ़ होते, तो मुझे दंडवत प्रणाम नही करते, क्योंकि मूर्ख व्यक्ति, कभी भी महात्मा को प्रणाम नही करता, वह अपनी जाति, धन, गौरव के अभाव में ही मरा जाता है, किंतु तुमने हमे महात्मा जान, संसार बंधन से छूटने की इच्छा से हमें महल में बुलाया, हमारा आदर सत्कार किया, अतः तुम मूर्ख (मूढ़) भी नही हो।
इसी से सिद्ध है, कि तुम्हारे अंदर जिज्ञासा अर्थात मुमुक्षु है, अतः तुम ज्ञान प्राप्त करने के पूर्ण अधिकारी हो... इसलिए अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते है...
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज क्षमार्ज्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥
राजन, यदि तुम संसार चक्र से मुक्त होने की कामना रखते हो, तो चक्षु, रसना आदि पांच ज्ञानेंद्रियों के जो स्पर्श, शब्द आदि पांच विषय है, उनका त्याग करो, जैसे विष का त्याग किया जाता है। जैसे विष खाने से मनुष्य मर जाता है, वैसे ही विषयों के भोग से संसार चक्र रूपी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसकी मुक्ति नही होती। इसलिए मुमुक्षु की चाह रखने वाले व्यक्ति को चाहिए, कि वह विषयों का त्याग कर दे। भोगने की चाहत रोगों को तो जन्म देती ही है, साथ ही वह बुद्धि भी मलिन करती है। सार असार वस्तु का विवेक ही खत्म हो जाता है।
राजा जनक ने कहा:- महात्मन!! विषय भोग के त्याग करने से शरीर नही रह सकता है... और जितने भी बड़े बड़े ऋषि अथवा राजऋषि हुए है, उन्होंने भी इसका त्याग नही किया, और वे आत्मज्ञान को प्राप्त हुए, और भोग भी भोगते रहे है, फिर आप हमसे यह क्यो कहते है, कि इसे त्यागो?
इस प्रश्न काउत्तर देते हुए अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन्! आपका कहना सत्य है, एवं स्वरूप से विषय भी नहीं त्यागे जाते हैं, परंतु इनमें जो अति आसक्ति है अर्थात् पाँचों विषयों में से किसी एक के अप्राप्त होने से चित्त की व्याकुलता होना, और सदैव उसीमें मन का लगा रहना आसक्ति है।
उसके त्याग का नाम ही विषयों का त्याग है। एवं जो प्रारब्ध भोग से प्राप्त हो, उसी में संतुष्ट होना, लोलुप न होना और उनकी प्राप्ति के लिए असत्य भाषण आदि का न करना। किंतु प्राप्ति काल में, उनमें दोष दृष्टि और ग्लानि होनी, और उसके त्याग की इच्छा होनी, और उनकी प्राप्ति के लिये किसी के आगे दीन न होना, इसी का नाम वैराग्य है। यह जनक जी के एक प्रश्न का उत्तर हुआ।
(इसका उदाहरण है भगवान श्रीराम जी... कहने को तो वह अयोध्या के राजा कहलाते थे, लेकिन क्या उन्होंने कभी राजा बनने की कामना की? उन्हें जो मिला, वह उसी में खुश रहे, चाहे वनवास हो, या राजगद्दी... रामचन्द्रजी माया के बीच मे रहकर भी, माया में रत्त नही रहे।)
अब जनक जी ने प्रश्न किया... हे भगवन्! संसार में नंगे रहने को और भिक्षा माँगकर खानेवाले को लोग वैराग्यवान् कहते हैं और उसमें जड़भरत आदिकों के दृष्टांत को देते हैं। आपके कथन से लोगों का कथन विरुद्ध पड़ता है।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अष्टावक्र जी कहते है... संसार में जो मूढबुद्धिवाले हैं वे ही नंगे रहने वालों और माँगकर खानेवालों को वैराग्यवान् जानते हैं और नंगों से कान फुकवाकर उनके पशु बनते हैं।
परन्तु युक्ति और प्रमाण से यह वार्ता विरुद्ध है। यदि नंगे रहने से ही बैराग्यवान् होता हो, तो सब पशु और पागल आदिकों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं देखते हैं।
और यदि माँगकर खाने से ही वैराग्यवान् हो जाये, तो सब दीन दरिद्रियों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं कहते हैं। इन्हीं युक्तियों से सिद्ध होता है कि नंगा रहने और माँगकर खानेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं है।
यदि कहो कि विचार पूर्वक नंगे रहने वाले का नाम वैराग्यवान् है, यह भी वार्ता शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि विचार के साथ इस वार्ता का विरोध आता है। जहाँ पर प्रकाश रहता है, वहाँ पर तम नहीं, रहता। ये दोनों जैसे परस्पर विरोधी हैं, वैसे सत्वगुण का कार्य, सत्य, और मिथ्य का विवेचन, रूपी विचार है और तमोगुण का कार्य नंगा रहना है।
देखिए, वर्ष के बारहों महीनों में नंगे रहनेवालों के शरीर को कष्ट होता है। सरदी के मौसम में सरदी के मारे उनके होश बिगड़ते हैं और उनके हृदय में विचार उत्पन्न भी नहीं हो सकता है। एवं गरमी और बरसात में मच्छर काट काट खाते हैं, अतः सदैव उनकी वृत्ति दुःखाकार बनी रहती है, विचार का गंधमात्र भी नहीं रहता है। तथा ' श्रुति ' से भी विरोध आता है।
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः ।
किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥
यदि विद्वान् ने आत्मा को जान लिया कि यह आत्मा ब्रह्म में ही हूँ, तब किसकी इच्छा करता हुआ और किस कामना के लिये शरीर को तपावेगा, किंतु कदापि नहीं तपावेगा।
और 'गीता' मे भी भगवान् ने इसको तामसी तप लिखा है। इसी से साबित होता है कि नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं है, और नंगे रहने का नाम वैराग्य नहीं है, किंतु केवल मूर्खों को पशु बनाने के वास्ते नंगा रहना है। सकामी इस तरह के व्यवहार को करता है, निष्कामी नहीं करता है।
तथा जड़भरतादिकों को अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त याद था। एक मृगी के बच्चे के साथ स्नेह करने से उनको मृग के तीन जन्म लेने पड़े थे, इसी वास्ते वह संगदोष से डरते हुए असंग रहते थे।
नद्याहारादि संत्यज्य भरतादिः स्थितः कचित् ।
काष्ठपापारणवत् किन्तु संगभीत्या उदास्यते ॥
जड़भरतादिक खान, पहरान आदि कों को त्याग करके कहीं भी नहीं रहे हैं, किन्तु पत्थर और लकड़ी की तरह जड़ होकर संग से डरते हुए उदासीन हो करके रहे हैं।
जब तक देह के साथ आत्मा का तादात्म्य, अध्यास बना है, तब तक तो नंगा रहना दुःख का और मूर्खता का ही कारण है। जब अध्यास नहीं रहेगा, तब इसको नंगे रहने से दु.ख भी नहीं होगा।
आत्मा के साक्षात्कार होने से जब मन उस महान् ब्रह्मानंद में डूब जाता है, तब शरीरादि कों के साथ अध्यास नहीं रहता है, और न विशेष करके संसार के पदार्थों का उस पुरुष को ज्ञान रहता है। मदिरा करके उन्मत्त को जैसे शरीर की और वस्त्रादिकों की खबर नहीं रहती है, वैसे ही जीवन्मुक्त ज्ञानी की वृत्ति केवल आत्माकार रहती है। उसको भी शरीरादिकों की खबर नहीं रहती है, ऐसी अवस्था जीवन्मुक्त की लिखी हुई है।
मुमुक्षु वैराग्यवान् की नहीं लिखी, क्योंकि उसको संसार के पदार्थों का ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहता है। संसार के पदार्थों में दोष दृष्टि और ग्लानि का नाम ही, वैराग्य है, और (खोटे पुरुषों के संग से डरकर महात्माओं का संग करनेवाला क्षमा, कोमलता, दया और सत्यभाषण आदि गुणों को अमृतवत् पान करने अर्थात् धारण करनेवाले का नाम वैराग्यवान् है और वही ज्ञान का अधिकारी है।
जय जय श्री सीताराम👏
जय जय श्री ठाकुर जी की👏
(जानकारी अच्छी लगे तो अपने इष्ट मित्रों को जन हितार्थ अवश्य प्रेषित करें।)
ज्यो.पं.पवन भारद्वाज(मिश्रा)
व्याकरणज्योतिषाचार्य
पुजारी -श्री राधा गोपाल मंदिर
(जयपुर)